Sunday, April 4, 2010

सानिया-शादी , मीडिया और टेनिस

पिछले कुछ दिनों से सानिया मिर्ज़ा और शोयब मालिक की ख़बरे समाचारों की सुर्खिया बटोर रहे है. 24 *7 के मानको की कसौटी पर खरा उतरने की दुहाई देने वालो को भी खबरों का टोटा पड़ गया है जिधर देखो सानिया और शोयब की तस्वीरे चमक रही है. लगता है जैसे भारत मे सिर्फ सानिया और उसका परिवार ही रहते है. देश की मीडिया ही नहीं सारे छुट भैया टाइप गली मोहल्ले की नेता भी इस मुद्दे को उठाए हुए है. चलो इसी बहाने उनकी तरफ इन खबरों के और TRP के भूखे लोगो की निगाह जाएगी. मै परेशान हू की क्या देश मे, और किसी भी खबर की हैसियत इतनी ख़राब है, या जनता के लिए जरुरी नहीं है की है यह बताना की फला जगह पर दुर्घटना हुई है, या देश के बेटे ने नासा के लिए चयनित हो कर देश का नाम रोशन किया है. पर नहीं दिखानी है तो सिर्फ सानिया की शादी और फ़िज़ूल के कोरे कयाश. कोई मुझे यह बताये की सानिया और शोयब मालिक के शादी के बाद सानिया देश का नाम किस तरह से रोशन करने वाली है. और भारत को क्या हाशिल होगा उसके पारिवारिक कामयाबी से, साथ ही दूसरा सवाल मै गीदर भबकी देने वाले बूढ़े शेर बाला साहेब ठाकरे से पूछना चाहती हू की शाहरुख के बयान पर उन्हें देश द्रोही करार देने वाली जबान इस बार क्यू नहीं आग उगल रही है, क्या आग ख़तम हो गई है या फिर हिम्मत नहीं है कुछ बोलने की, जब एक हिन्दुस्तान की लड़की की शादी एक पाकिस्तानी से होने जा रही है. शोयब भी खेल से तालुकात रहता है और साथ की उसके ऊपर एक भारतीय लड़की के साथ शादी करने का भी आरोप लगा हुआ है. क्यू नहीं इस बार बाप, बेटे और भतीजा जहर बोल रहे है क्यू ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली है यह कह कर की यह सानिया का निजी मामला है. खबर इतनी बड़ी हो गई है की कुछ चुनिन्दा अखबारों के संपादको को सानिया की शादी का मामला बड़ा लग रहा है न की ये, गृह मंत्री चिदंबरम देश की सुरक्षा निति को बदलने की कोशिशो मे लग गए है. एडिटोरिअल मे बजाय इसके सानिया और सोहराब की शादी को भारत पकिस्तान के बीच के रिश्ते सुधारने की कोशिशो की पहली कड़ी बताया है. क्या सानिया कोई शांति दूत है जो अपने कुर्बानी दे कर दो देशो के तल्ख़ हो चुके रिश्तो को सुधारने की राह पर चल रही है. देश मे और भी कई होनहार खिलाड़ी है जिन्होंने देश के लिए अभाव को झेल कर मेडल दिलाया है न की हैदराबाद की इस बाला की तरह मीडिया के कंधो पर चढ़ कर सुर्खिया बटोरी है. इसी भारत का एक होनहार खिलाड़ी सुशील कुमार जब उपेक्षाओ का शिकार होता है (कुश्ती) तो उस बेचारे को मीडिया मे इतनी जगह नहीं मिलती क्यूंकि वो सुर्खिया बटोरना नहीं जानता है. और न ही मुसलमान है जिसके लिए सब आगे आ जाये, न ही वो वोट दिलवा सकता है. पर यह सब सानिया बखूबी कर सकती है क्या सानिया को यह नहीं पता था की शोयब की पिछली जिंदगी से जो जिन्न बाहर आया है उसका पीछा खबरों के भूखे कर रहे होंगे. और जिस तरह शोयब सानिया के घर मे प्रकट होता अहै मीडिया के सामने क्या वो सोची समझी रणनीति का हिस्सा नहीं था. जिसे यह चैनल वाले एक्सक्लुसिव बता कर चला रहे है क्या वाकई वो एक्सक्लुसिव है या फिर ........................................सोचो ? क्यूंकि सानिया टेनिस खेलने आई थी पर बाद मे ऐसा लगा की खेल से ज्यादा उसका ध्यान सिर्फ इस बात पर है की वोह दिन भर मे कितनी बार और कौन से add मे दिखती है. इसलिए जरा गंभीरता से सोचो ................?

Thursday, March 25, 2010

क्या वाकई प्यार ,सेक्स और धोखा है -2


जरा सोचिये की अगर परिवार का माहोल बंधन युक्त न हो कर खुशनुमा और दोस्ताना हो तो क्या युवा पीढ़ी घर के बाहर इस तरह छुपे कैमरे की पहुच मे इस तरह से आते रहेंगे. शायद नहीं क्यूंकि तब उन्हें यह पता होगा की परिवार की सुरक्षा और विश्वास उनके साथ है. बाकि सब दिखावा है. अभी तक हमारे ईद गिद अगर कोई घटना होती है तो उसका कसूरवार सिर्फ महिलाओ को बनाया जाता है. भले जुर्म मे लड़का बराबर का भागीदार हो पर उसकी इज्जत पर कभी आंच नहीं आती है. उसकी बदनामी नहीं होती है क्यूंकि वो लड़का अहि हमें इस भेदभाव पर काबू पाना ही होगा वरना एकता और उस जैसे कई और लोग इसे भारतीय समाज का सच बता कर अपनी दूकान चलते रहेंगे और इन घटिया चीजो को देखा कर युवाओ को बरगलाते रहेंगे. हमारे संस्कृति का पतन पश्चिमी विचार धरा से प्रभावित हो कर इतना नहीं होगा जितना इन जैसे लोगो की सोच से होगा. आप जरा यह सोचिये चाहे लड़का हो या लड़की अगर उससे जाने अनजाने कोई गलती होती है तो क्या वो अपने परिवार को बता सकता है नहीं क्यूंकि उसके मन मे यह डर बैठा होता है की उनकी स्वतंत्रा छीन जायेगे और उन्हें बेरियो मे बाँध दिया जायेगा. इस डर से उनका शोषण होता चला जाता है घर के बाहर और भीतर हर स्तर पर जब घर ही शोषण की शुरुआत कर दे तो बाहर क्यों शोषण नहीं होगा. और क्यू कोई mms और कोई video क्लिप नहीं बनेगी. सबसे पहले हमे अपने संस्कारों को मजबूत करना होगा विश्वास की नीव रख कर. तब कोई भी तकनीक आ जाये कुछ भी नहीं बिगाड़ सकती. जरा सोचिये सिर्फ युवा ही नहीं समाज भी क्यूंकि प्यार कभी धोखा नहीं हो सकता है और जहा धोखा हो वोह प्यार नहीं आ सकता है.

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Sunday, March 21, 2010

क्या वाकई प्यार ,सेक्स और धोखा है

काफी लम्बे समय से कुछ लिख नहीं पाई इसका मुझे मलाल है, काम मे काफी वयस्तता रही है. पर जब से छोटे परदे की महारानी एकता कपूर और दिवाकर बनर्जी की फिल्म प्यार धोखा और सेक्स की बाते शुरू है एक बार फिर से बाज़ार की गर्माहट बढ़ गई है. कारण इस फिल्म का विषय पर लोग चर्चा करने से बचते है और युवा पीढ़ी को कोसना शुरू कर देते है उनकी सारी नैतिकता की दुहाई युवाओ से शुरू होती है और वही ख़तम हो जाती है. और लगे हाथ हम लग जाते है सुचना क्रांति को गरियाने . पर सोचिये क्या समाज मे होने वाली इन घटनाओ के लिए सिर्फ युवा पीढ़ी और नई क्रांति ही जिम्मेदार है. कुछ लोगो का मत है की आज का युवा सिर्फ मस्ती और रोमांच की दुनिया मे जीना चाहता है और सबसे पथ से भटकी हुई है. पर कौन है जो एकता और दिवाकर जैसे लोगो को इन युवाओ के कंधे पर रख कर बंदूक चलाने की इजाजत देते है आप और हम. क्यूंकि इन लोगो को संबंधो का तमाशा बनने मे मज़ा आता है, सेक्स जैसी चीज़ जो निहायत किसी का निजी मामला होता है और आपसी समझ पर आधारित है उसे कुछ लोगो की विकृत मानसिकता का शिकार बनते ज्यादा समय नहीं लगता है. इसका कारण है की शुरू से ही समाज मे लडकियो को सिर्फ उत्पादन की वस्तु समझा जाता है आप किसी भी घर मे देखो आपको मेरी कही बात का सबूत मिल जायेगा परिवार की इज्जत और मर्यादा को निभाने का सबक लड़कियो को घुट्टी की तरह पिलाया जाता है और लड़को को घर के बाहर इधर उधर मुह मरने की खुली छुट होती है उनके लिए अपनी बहन घर की इज्जत और दुसरो की बहन उपयोग की वस्तु. आखिर कौन है इन सब का जन्मदाता, यह दकियानुशी समाज, समाज के ये कथित ठेकेदार और परिवार का बंधन युक्त माहोल


जारी..........................................................
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Wednesday, November 25, 2009

हम नहीं सुधरेंगे - हम है मीडिया बाबु




शिल्पा कि शादी की खबर सुनकर अच्हा लगा की चलो बॉलीवुड की एक और अभिनेत्री ने अपना घर बसा लिया है, शुक्र है की तथाकथित प्रेम कथा का सुखद अंत परिणय के रूप मे बदल गया. वरना मायानगरी मे कोई प्रेम संबध साल और महीनो से ज्यादा नहीं चल पाते. चाहे बात रेखा की हो या प्रीटी जिंटा, लारा, अमीषा और कंगना रानौत, ऐश्वर्या ही क्यों न हो. सबके साथ एक न निभने वाली संबंधो की कहानी जरूर है. जिसमे पाठको और मीडिया की उत्सुकता बनी रहती है.

लेकिन जिस तरह मीडिया इस रील लाइफ की जोड़ियो मे रियल लाइफ का conection मिलान करने लगता है, ठीक उसी तरह इस बार भी मीडिया ने इस शादी मे जो दिलचस्पी दिखाई उसके लिए अगर अवार्ड रखा जाता तो इन टीवी चैनलो को जरूर मिल जाता क्यूंकि जिस तरह की होड़ मची थी शादी की कवर करने के लिए उसे देख कर ऐसा लगा की मानो कोई हमसे आगे न बढ़ जाये. टीवी वाले तो चलो कैमरा और रिपोर्टर के बूते खुद को चमकाए हुए थे, पर अखबार भी कुछ कम उत्साह का प्रदर्शन नहीं कर रहे थे. शिल्पा ने क्या पहना, उनको घबराहट हो रही है की नहीं, फला-फला.
बचपन मे दादी नानी कहा करती थी की अमुक जगह पर लोगो ने ( भेड़िया धसान) कर रखा है, यानि भीड़ भार हो रही है. वैसी ही हालत मीडिया ने पुणे मे आयोजित शिल्पा के विवाह को दिखने मे की. देख कर आश्चर्य हुआ यह देख कर की जिस आजतक को लोग गंभीर खबरों और खोजी पत्रकारिता के लिए जानते थे अब वोह भी इंडिया टीवी की नक़ल करने की चक्कर मे और शिल्पा की शादी दिखने के चक्कर मे अपनी ऐसी तैसी किये बैठा है.

मीडिया का बस नहीं चलता वरना यह सेलिब्रिटी की शादी के बाद उनके बेडरूम मे भी कैमरा लगा दे की फिल्मो मे हॉट सीन देने वाली अमुक अभिनेत्री या अभिनेता रियल लाइफ मे बेड पर कितने हॉट है . यह भी एक बिडम्बना है की कल का दिन जब देश के संसद मे बाबरी मस्जिद गिराए जाने का रिपोर्ट मांग रहा था उसी दिन यह no 1 no .2 की कुर्शी वाले शिल्पा की शादी का व्याखान करने मे जुटे हुए थे.

आज से लगभग ढाई साल पहले भी यह अमिताभ के बेटे की शादी को कवर करने मे जुटे पर अमिताभ ने नाक पर इन मीडिया रुपी एक भी मक्खी नहीं बैठने दी थी. पता नहीं इन्हें अकाल कब आएगी की ये ही सितारे अपनी फिल्मो का या अपने आप का प्रचार करने के लिए मीडिया को इस्तेमाल करते है और जब भी मन करता है दूध मे पड़ी मक्खी की तरह निकाल फेकते है, सबसे बड़ा उदहारण आमिर खान लेकिन हम नहीं सुधरेंगे वाली बात को सोच कर आगे बढ़ जाते है. एक बड़ा सवाल यह भी है की क्यों नहीं यह

इन मगरूर और मनमौजी अभिनेताओ का बहिष्कार करके सबक सिखाते है?

लेकिन हद तो तब हो गई जब एक नमी गिरामी अखबार अमर उजाला ने ऐश्वर्या और शिल्पा के शादी के फोटोग्राफ की तुलना शुरू कर दी की शिल्पा ने ऐश्वर्या की तरह कपडे औए आभूषण तक कॉपी किये हुए है, बात पाठको के हाथ मे दे डाली की अब पाठक यह तय करेंगे की दोनों मे सुंदर कौन लग रहा है. मुझे तरस आता है अमर उजाला की सोच पर की उन्हें सोचना चाहिए की दोनों अभिनेत्री मंगलोर से तालुक रखती है तो उनका पहनावा भी एक जैसा होगा और यहाँ कोई सौन्दय प्रतियोगिता नहीं हो रही है की लोग बेहतर दुल्हन का चुनाव करे. सुधर जाओ दोस्तों वरना न घर के रहोगे और न घाट के.

Wednesday, November 18, 2009

देवदासी और धर्म की दूकान

धर्म के नाम पर सब चलेगा भाई ????


कुछ दिनों पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर वेलोर की खबर चलते देखी। यहां मेरे लिखने की वजह वो चैनल नहीं बल्कि देखी गई खबर है। खबर कुछ ऐसी थी कि 12-13 साल की बच्चियो को देवदासी चुना गया और उन्हे अगले कुछ सालो तक देव और देवियों यानी भगवान की सेवा मे अपना जीवन व्यतित करना है समाज मे इन बालिकाओ का दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो जायेगा ।. ( इस प्रथा के तहत उन किशोरवय लड़कियो का विवाह किसी मंदिर या देव से कर दिया जाता है, घोषित रूप से ब्रह्मचार्य का पालन करना होता है पर विशेष अधिकार के तौर पर हिन्दू संस्कारो से इतर वैवाहिक संस्था को तार- तार कर के पुरुष ससंग भी कर सकती है) . पर देवदासी प्रथा के तहत उनकी आज़ादी छिन चुकी है, इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से खुश थी कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनी, और देखरेख का अधिकार प्राप्त हो गया है. वहा रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को मिलेगा साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा जिनके साथ वह पैदा हुई है. कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियो के सर पर मटकियां रख कर जुलुस भी निकाला गया। भीड़ के आगे प्रतिनिधितव करती इन किशोरियो का बालमन जब परिपक्व होगा ? बढती उम्र और मातृत्व की लालसा चरम पर होगी , और ये यादें साथ होंगी तो क्या वो एक सम्मानित जीवन की नीव रख पाएंगी ? कैसे जी पाएंगी वो इन कड़वी यादों के साथ? दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाने पर, समाज द्वारा नकार दिए जाने पर क्या वेश्यावृति की ओर इनके कदम नहीं मुडेंगे? न चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाइएगा.

हम थोडा पीछे इतिहास के आइने मे देखे तो यह समझना आसन हो जाइएगा की 6th और 10th शत्ताब्दी मे इसका क्या स्वरुप था और बाद मे यह कितना विकृत हो गया था, प्रान्तिये राजाओ और सामंतो के लिए यह भोग विलास, और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान बन चुका था. इस प्रथा को सबसे ज्यादा बढावा दिया चोल ने.सदियों के गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यो की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण , इस कुप्रथा की जड़े इतनी गहरी है कि वो इन बच्चियो के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी है। जो मैंने देखा और जो अनुभव किया उसमे दो चीजे थी। पहली यह कि बच्चियों को निर्वस्त्र कर के घुमाया जा रहा था। दूसरा, लोगो का हुजूम जो इन नाबालिग बच्चियो का उत्साहवर्धन कर रहे थे? और प्रशासन को कोई खबर नहीं थी। जबकि कर्नाटक मे प्रशासन ने 1982 मे और आन्ध्र प्रदेश मे 1988 मे इस प्रथा पर रोक लगा दी थी. पर 2006 मे हुए सर्वे मे यह बात निकल कर सामने आई की इस परम्परा का निर्विरोध पालन होता चला आ रहा है. उन समुदाय की भावना प्रगतिशील देश की कल्पना पर भारी पड़ रही है. और उन्हें कोई मतलब नहीं है की इस बुराई को अपने साथ ढोते रहना कितना गलत है. समय- समय पर फिल्मकारों ने इस विषय की गंभीरता को उठाने की कोशिश की है लेकिन हमारे यहाँ की जनता जो की मलिका और प्रियंका चोपड़ा को अधनंगी देखने की आदि हो चुकी है ने नकार दिया. फिल्म परनाली इसका बेहतरीन उदहारण है. कि कैसे देवदासी बनी नायिका अपने ख़ोल से बाहर आ कर मातृत्व सुख और अपने बच्चे को सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए समाज के ठेकेदारों से लडती है.

लेकिन यहाँ सवाल ये है की अगर कोई मौत होती है और गाजे -बाजे के साथ मौत का जनाजा निकलता है,तो भी लोगो को मालूम चल जाता है, पर यहां तो गाजे बजे के साथ इन बच्चियो के भविष्य का तमासा निकाला जा रहा था। सदियो से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है जिसका आज के समय मे कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कही ज्यादा उन बच्चियो के भविष्य के नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है, उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है । पर इस उम्र मे उन कोमल बालिकाओ को सपने देखने का अधिकार भी नहीं है। मजेदार बात तो यह है कि इन बच्चियो के हक मे कोई राजनेता और महिला बाल विकास संगठन आवाज उठाने आगे नहीं आता क्यूंकि शायद उन्हे लगता है कि इससे उन्हें बहुत फायदा नहीं होनेवाला। क्यूंकि यहाँ उन्हें कोई रियलिटी का मंच नहीं नजर आता जहा से वो अपनी आवाज़ के जरिये प्रसिद्धी का स्वाद चख सके और मे चर्चा मे बने रहे . इन गरीब तबके कि बच्चियो को उनके परिवार को आर्थिक, और सामाजिक हैसियत मिलनी चाहिये ताकि देर से ही सही पर इस बुराई को ख़तम किया जा सके .हर जगह आपको ऐसे नेता और समाज सेवी दिख ही जायेंगे जो मीडिया मे किसी बहाने अपनी सूरत चमकाने से परहेज़ नहीं करते है ? लेकिन इन बच्चियो को निर्वस्त्र देख कर उन्हे शर्म भी नहीं आती। क्यंकि हमारे भारत मे धर्म के नाम पर सब करना जरुरी है. चाहे राजनीति हो या समुदाय सब जरुरी है........

श्वेता रश्मि

Sunday, November 15, 2009

मनु शर्मा का पैरोल और मीडिया और हम

धीरज जी ने मीडिया, और सरकार को आड़े हाथो लेते हुए काफी कुछ लिखा है पर वो जल्दबाजी मे एक गलती कर गए मनु शर्मा उर्फ़ सिद्धार्थ वशिस्ठ के मामले मे , मनु को पैरोल मिली यह बात सही है पर सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को कब फटकार लगाई यह वो ही बता सकते है? कोर्ट मे अभी तक पैरोल को लेकर कोई पत्र नहीं दाखिल किया गया है किसी भी जुर्म मे दोषी व्यक्ति जिसको कोर्ट ने सजा सुना रखी है उसके पैरोल पर विचार करने का अधिकार राज्य सरकार के पास सुरक्षित होता है और इसी अधिकार के तहत मनु को दिल्ली सरकार के द्वारा पैरोल पर बाहर जाने की इजाजत मिली. हाई कोर्ट ने सरकार से तिहाड़ मे बंद बंदियो की विचाराधीन पैरोल याचिका की सुचना मांगी थी न की खास तौर सिर्फ मनु शर्मा की. दूसरी बात यह कही है उन्होंने की हरयाणा चुनाव प्रचार मे मनु अपने पिता विनोद शर्मा के लिए चुनाव प्रचार कर रहा था यह किसी ने नहीं छापा न दिखाया ? खबर 'मैनेज' कर दी गई थी. तो जहा तक मेरी जानकारी है धीरज जी जिस मीडिया संस्थान से जुड़े है उसकी की पूरी टीम भी वहा चुनाव प्रचार को कवर करने मे जुटी हुई थी क्या उनकी टीम ने भी खबर को 'मैनेज' करने मे भूमिका अदा किया था. पत्रकार महोदय चोथे सतम्भ का कोई भी पहिया अदना नहीं होता है. उसके लिए देश पहले है मनु शर्मा बाद मे. खबर खाना नहीं है जिसे हम बासी और ताजा समझ कर खाए खबर- खबर है , खबर की अहमियत उसके आने पर पैदा हो जाती है. मनु की गलती सिर्फ यह थी कि वो मनु शर्मा है एक धनाढ्य घर का बेटा? एक राजनेता का पुत्र इसलिए सबसे ज्यादा खामियाजा भी उसे उठाना पड़ा है. पर गलती उसने कि है इसलिए वो सजा पाने का भी हक़ रहता है. पर एक कटु सत्य यह भी है की न जाने कितनी लड़किया हर रोज़ मौत के घाट उतार दी जाती है कभी इज्जत के नाम पर तो कभी किसी और कारणों से लेकिन उन के हत्यारो को सजा दिलवाने कोई नहीं आता न मीडिया न सरकार और न ही आम लोग अभी कल की ही घटना है दिल्ली मे सरेराह एक महिला चलती बस मे गुंडों के हाथो पिटती रही पर कोई उसकी मदद को आगे नहीं आया, यहाँ यह याद रखने की बात है की यह वोही दिल्ली है जो जेसिका के लिए जस्टिस मांग रहा था मोम्बतिया बेचने वालो की आमदनी मे इजाफा कर रहा था. पर उस महिला की मदद को आगे नहीं आया. अफजल जैसे कितने देश द्रोही यही इसी दिल्ली मे तिहाड़ मे रहते है पर हम है की नहीं बस मनु के नाम पर ही लिखना है. किसी सज्जन ने कहा की जब मनु को २ महीनो की पैरोल मिली तो विकास को सिर्फ एक दिन की क्यों मतलब उसे १ महीने के लिए बाहर भेज कर तीसरे कत्ल का इन्तेजार करना चाहिये था. पर अभी इस पर चर्चा करने का उचित समय नहीं आया है. पिछले कुछ दिनों से मनु शर्मा से सम्बंधित ख़बरे लगातार मीडिया मे सुर्खिया बटोरती रही. मनु के साथ एक और भी खबर गौर करने वाली थी, कि मनु का झगडा दिल्ली के पुलिस कमिश्नर वाईएस डडवाल के बेटे से हुआ था. अगर वो डडवाल का बेटा नहीं होता तो शायद पुलिस इतनी जल्दी हरकत मे नहीं आती और बात आई गई हो जाती. डडवाल का मीडिया प्रेम तो जगजाहिर है, आप ने लिखा है उनकी पारदर्शी व्यक्तित्व के बारे मे जुर्म तो भाई जुर्म ही है चाहे डडवाल का बेटा करे या कोई और पर यहाँ तो शेर को सवा शेर मिल गया न एक तरफ मनु तो दूसरी तरफ जूनियर डडवाल कम कौन है. मीडिया ने इस खबर पर पिछले दस सालो मे बहुत रो पिट लिया है टीआरपी भी आपके शब्दों मे बटोर ली पर अब क्या. शर्मा फॅमिली से बड़ी समस्या अभी हमारे सामने चाइना और पाकिस्तान प्रोजेक्टेड आतंकवाद का है, तो आत्ममंथन किसे करना चाहिये यह आप जरुर सोचियेगा .