Wednesday, November 18, 2009

देवदासी और धर्म की दूकान

धर्म के नाम पर सब चलेगा भाई ????


कुछ दिनों पहले मैंने किसी न्यूज़ चैनल पर वेलोर की खबर चलते देखी। यहां मेरे लिखने की वजह वो चैनल नहीं बल्कि देखी गई खबर है। खबर कुछ ऐसी थी कि 12-13 साल की बच्चियो को देवदासी चुना गया और उन्हे अगले कुछ सालो तक देव और देवियों यानी भगवान की सेवा मे अपना जीवन व्यतित करना है समाज मे इन बालिकाओ का दर्जा जरुर कुछ श्रेष्ठ हो जायेगा ।. ( इस प्रथा के तहत उन किशोरवय लड़कियो का विवाह किसी मंदिर या देव से कर दिया जाता है, घोषित रूप से ब्रह्मचार्य का पालन करना होता है पर विशेष अधिकार के तौर पर हिन्दू संस्कारो से इतर वैवाहिक संस्था को तार- तार कर के पुरुष ससंग भी कर सकती है) . पर देवदासी प्रथा के तहत उनकी आज़ादी छिन चुकी है, इस बात से अनजान ये बच्चियां सिर्फ इस बात से खुश थी कि अब उन्हें मंदिर की स्वामिनी, और देखरेख का अधिकार प्राप्त हो गया है. वहा रहने के दौरान वस्त्र और अच्छा खाना खाने को मिलेगा साथ ही उस गरीबी से भी छुटकारा जिनके साथ वह पैदा हुई है. कमर के उपरी हिस्से तक निर्वस्त्र इन बच्चियो के सर पर मटकियां रख कर जुलुस भी निकाला गया। भीड़ के आगे प्रतिनिधितव करती इन किशोरियो का बालमन जब परिपक्व होगा ? बढती उम्र और मातृत्व की लालसा चरम पर होगी , और ये यादें साथ होंगी तो क्या वो एक सम्मानित जीवन की नीव रख पाएंगी ? कैसे जी पाएंगी वो इन कड़वी यादों के साथ? दूसरी ओर एक खुशहाल जिंदगी न मिल पाने पर, समाज द्वारा नकार दिए जाने पर क्या वेश्यावृति की ओर इनके कदम नहीं मुडेंगे? न चाहते हुए भी उन्हें वेश्यावृति के गहरे दलदल मे ढकेल दिया जाइएगा.

हम थोडा पीछे इतिहास के आइने मे देखे तो यह समझना आसन हो जाइएगा की 6th और 10th शत्ताब्दी मे इसका क्या स्वरुप था और बाद मे यह कितना विकृत हो गया था, प्रान्तिये राजाओ और सामंतो के लिए यह भोग विलास, और समाज मे अपनी प्रतिस्ठा की पहचान बन चुका था. इस प्रथा को सबसे ज्यादा बढावा दिया चोल ने.सदियों के गुजरने के बाद भी प्रथा ज्यो की त्यों चली आ रही है, बदले तो सिर्फ हमारे बाहरी आवरण , इस कुप्रथा की जड़े इतनी गहरी है कि वो इन बच्चियो के सुनहरे वर्तमान और भविष्य पर भारी है। जो मैंने देखा और जो अनुभव किया उसमे दो चीजे थी। पहली यह कि बच्चियों को निर्वस्त्र कर के घुमाया जा रहा था। दूसरा, लोगो का हुजूम जो इन नाबालिग बच्चियो का उत्साहवर्धन कर रहे थे? और प्रशासन को कोई खबर नहीं थी। जबकि कर्नाटक मे प्रशासन ने 1982 मे और आन्ध्र प्रदेश मे 1988 मे इस प्रथा पर रोक लगा दी थी. पर 2006 मे हुए सर्वे मे यह बात निकल कर सामने आई की इस परम्परा का निर्विरोध पालन होता चला आ रहा है. उन समुदाय की भावना प्रगतिशील देश की कल्पना पर भारी पड़ रही है. और उन्हें कोई मतलब नहीं है की इस बुराई को अपने साथ ढोते रहना कितना गलत है. समय- समय पर फिल्मकारों ने इस विषय की गंभीरता को उठाने की कोशिश की है लेकिन हमारे यहाँ की जनता जो की मलिका और प्रियंका चोपड़ा को अधनंगी देखने की आदि हो चुकी है ने नकार दिया. फिल्म परनाली इसका बेहतरीन उदहारण है. कि कैसे देवदासी बनी नायिका अपने ख़ोल से बाहर आ कर मातृत्व सुख और अपने बच्चे को सामाजिक अधिकार दिलाने के लिए समाज के ठेकेदारों से लडती है.

लेकिन यहाँ सवाल ये है की अगर कोई मौत होती है और गाजे -बाजे के साथ मौत का जनाजा निकलता है,तो भी लोगो को मालूम चल जाता है, पर यहां तो गाजे बजे के साथ इन बच्चियो के भविष्य का तमासा निकाला जा रहा था। सदियो से चली आ रही परम्परा का अब ख़तम होना बहुत ही जरुरी है। देवदासी प्रथा हमारे इतिहास का और संस्कृति का एक पुराना और काला अध्याय है जिसका आज के समय मे कोई औचित्य नहीं है। इस प्रथा के खात्मे से कही ज्यादा उन बच्चियो के भविष्य के नीव का मजबूत होना बहुत आवश्यक है। जिनके ऊपर हमारे आने वाले भारत का भविष्य है, उनके जैसे परिवारों की आर्थिक स्थिति सुधरनी बहुत जरुरी है । पर इस उम्र मे उन कोमल बालिकाओ को सपने देखने का अधिकार भी नहीं है। मजेदार बात तो यह है कि इन बच्चियो के हक मे कोई राजनेता और महिला बाल विकास संगठन आवाज उठाने आगे नहीं आता क्यूंकि शायद उन्हे लगता है कि इससे उन्हें बहुत फायदा नहीं होनेवाला। क्यूंकि यहाँ उन्हें कोई रियलिटी का मंच नहीं नजर आता जहा से वो अपनी आवाज़ के जरिये प्रसिद्धी का स्वाद चख सके और मे चर्चा मे बने रहे . इन गरीब तबके कि बच्चियो को उनके परिवार को आर्थिक, और सामाजिक हैसियत मिलनी चाहिये ताकि देर से ही सही पर इस बुराई को ख़तम किया जा सके .हर जगह आपको ऐसे नेता और समाज सेवी दिख ही जायेंगे जो मीडिया मे किसी बहाने अपनी सूरत चमकाने से परहेज़ नहीं करते है ? लेकिन इन बच्चियो को निर्वस्त्र देख कर उन्हे शर्म भी नहीं आती। क्यंकि हमारे भारत मे धर्म के नाम पर सब करना जरुरी है. चाहे राजनीति हो या समुदाय सब जरुरी है........

श्वेता रश्मि

5 comments:

  1. shweta ek to pehle kabhi kabhimedia hi ese daav pech khada kar deti hey ki us par decision lena mushkil ho jata hey.. hope u ahveseen this news throughly and after write this.. because i have not seen this yet.. but ek baat sahi hey ki jab bachhiyo ki baarat nikali gai to piche chalne walo se jyada dekhne wale honge.. Media ke persons hath me pen or camera lekar reporting karte rahey.. kyu? visulisation perfect miley us liye ? Itihaas wo cheej hey jis ke panne ultane se dhul ke sath me aapko kai saari nangi hakikato ke ghinone chehre saamne aayenge. Duniya to badal hi rahi hey lekin janta badalne se parhez jyu rakhti hey? koi kyu nahi bola waha pe? MERA KYA OR MUJE KYA wali baat ho gayi.. not good sign for democracy.. otherwise u have put this issue here is also a good things, unknown people should know what is going on and around india... Jai ho

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  2. देवदासी की परम्परा हमारे समाज का एक घृणित चेहरा है। इसपर तत्काल प्रभाव सेरोक लगानी चाहिए।
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    क्या स्टारवार शुरू होने वाली है?
    परी कथा जैसा रोमांचक इंटरनेट का सफर।

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  3. is baat par charcha karte rehne se kuch nahi hoga jaruri hai ye baat ki kaun isko aage badhkar chunauti dega hum log sirf baat hi karte chale aa rahe hai aage badhkar koi bhi kuch nahi karta. aaj media itni powerful hai to kyon na is chiz ke liye aawaj uthaye aur balki bahut logo ko isme shamil bhi kare jaruri to nahi ki sirf visual chahiye isliye jao kuch kaam money ke liye nahi kiye jaate

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  4. बहुत सुन्दर लिखा है, बेबाक और सत्य........

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  5. ब्लाग का नाम सिपैहिया जी या बाबू होता तो, माफ़ करियेगा, एक फ़िल्म की याद दिला गया आप के ब्लाग का शीर्षक

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